रश्मिरथी
रश्मिरथी
सच है, विपत्ति जब आती है,
- कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,
- क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुख से न कभी उफ कहते हैं,
- संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
- उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
- टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
- पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
- हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
- वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है
रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
- झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
- बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।
वसुधा का नेता कौन हुआ?
- भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?
- नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?
जिसने न कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया।
जब विघ्न सामने आते हैं,
- सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,
- तन को झँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही।
वाटिका और वन एक नहीं,
- आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,
- पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल न मिलते हैं।
कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,
- छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,
- लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं।
बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,
- मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
- तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है?
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
- बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
- पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
रचनाकार: रामधारी सिंह "दिनकर"
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