सत्य तो बहुत मिले / अज्ञेय

सत्य तो बहुत मिले 

अज्ञेय


खोज़ में जब निकल ही आया 
सत्य तो बहुत मिले । 

कुछ नये कुछ पुराने मिले 
कुछ अपने कुछ बिराने मिले 
कुछ दिखावे कुछ बहाने मिले 
कुछ अकड़ू कुछ मुँह-चुराने मिले 
कुछ घुटे-मँजे सफेदपोश मिले 
कुछ ईमानदार ख़ानाबदोश मिले । 

कुछ ने लुभाया 
कुछ ने डराया 
कुछ ने परचाया- 
कुछ ने भरमाया- 
सत्य तो बहुत मिले 
खोज़ में जब निकल ही आया । 

कुछ पड़े मिले 
कुछ खड़े मिले 
कुछ झड़े मिले 
कुछ सड़े मिले 
कुछ निखरे कुछ बिखरे 
कुछ धुँधले कुछ सुथरे 
सब सत्य रहे 
कहे, अनकहे । 

खोज़ में जब निकल ही आया 
सत्य तो बहुत मिले 
पर तुम 
नभ के तुम कि गुहा-गह्वर के तुम 
मोम के तुम, पत्थर के तुम 
तुम किसी देवता से नहीं निकले: 
तुम मेरे साथ मेरे ही आँसू में गले 
मेरे ही रक्त पर पले 
अनुभव के दाह पर क्षण-क्षण उकसती 
मेरी अशमित चिता पर 
तुम मेरे ही साथ जले । 

तुम- 
तुम्हें तो 
भस्म हो 
मैंने फिर अपनी भभूत में पाया 
अंग रमाया 
तभी तो पाया । 

खोज़ में जब निकल ही आया, 
सत्य तो बहुत मिले- 
एक ही पाया । 

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